Wednesday, 8 June 2011

सांप्रदायिक हिंसा बिल पर गुलाब कोठारी के विचार

गुलाब कोठारी
भारतवर्ष एक पुरातन, बहुभाषी और सांस्कृतिक विभिन्नता वाला राष्ट्र है। यहां लोकतंत्र भी अखण्डता, एकता और सम्प्रभुता के चिन्तन पर आधारित है। देश के बंटवारे के साथ हिन्दू-मुस्लिम एक विरोधाभासी सम्प्रदाय के रूप में उभरने लगे। राजनेताओं ने इस विचारधारा को खूब हवा दी। गंगा-जमुनी संस्कृति को आमने-सामने खड़ा कर दिया।
देश टूटने लगा और नफरत की बढ़ती आग में नेता रोटियां सेकने लगे। जब इससे भी पेट नहीं भरा, तब अल्पसंख्यक शब्द का अविष्कार कर डाला। अच्छे भले मुख्य धारा में जीते लोगों को मुख्य धारा से बाहर कर दिया। अपने ही देश में लोग द्वितीय श्रेणी के नागरिक बन गए। उनके ‘कोटे’ निर्घारित हो गए। जन प्रतिनिघियों की क्रूरता की यह पराकाष्ठा ही है कि संविधान में बिना ‘बहुसंख्यक’ की व्याख्या किए ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को थोप दिया गया।  आप अल्पसंख्यकों को पूछें कि क्या उत्थान का चेहरा देखा?
राजनीति में संवेदना नहीं होती। अब तो लोकतंत्र में भी कांग्रेस/ भाजपा के प्रधानमंत्री/ मुख्यमंत्री होने लग गए। राष्ट्र और राज्यों का प्रतिनिघि कोई भी दिखाई नहीं देता। कोई किसी का रहा ही नहीं। कोई किसी को फलता-फूलता सुहाता ही नहीं। बस सत्ता-धन लोलुपता रह गई। इनका भी अपराधीकरण नेताओं ने ही किया। देश के सीने पर फिर आरक्षण के घाव किए गए। विष उगलने लगे, अपने ही गांव वाले, पड़ोसी। घर बंट गए, कार्यालय बंट गए।
एकता और अखण्डता को मेरे ही प्रतिनिघियों ने तार-तार कर दिया। नेताओं ने खूब जश्न मनाया। अब इन नासूरों से मवाद आने लगा है। आम आदमी कराह रहा है। आरक्षण के अनुपात (प्रतिशत) की सूची देखें तो सभी अल्पसंख्यक नजर आएंगे। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद जिस ‘साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा निरोधक बिल-2011′ को कानूनी जामा पहनाना चाहती है, बहुसंख्यकों के विरूद्ध, उसे पहले परिभाषित तो करे। किसको बहुसंख्यक के दायरे में रखना चाहेगी?
हाल ही में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की ओर से जारी इस बिल के मसौदे को पढ़कर लगता है कि हमने क्यों आजादी के लिए संघर्ष किया था। क्यों हमने जन प्रतिनिघियों को देश बेचने की छूट दे दी। क्यों हमने समान नागरिकता के अघिकार को लागू नहीं किया? क्यों हमने कश्मीर को अल्पसंख्यकों के हवाले कर दिया और वोट की खातिर तीन करोड़ (लगभग) बांग्लादेशी अल्पसंख्यकों को भारत में अनाघिकृत रूप से बसने की छूट दे दी।
इस नए बिल को देखकर तो लगता है कि हमारे नीति निर्माता पूरे देश को ही थाली में सजाकर पाकिस्तान के हवाले कर देना चाहते हैं। आश्चर्य है कि परिषद के साथ-साथ उसके अध्यक्ष ने भी बिल तैयार करके सरकार के पास भेज दिया। ऎसा घिनौना बिल आजादी के बाद पढ़ने-सुनने में भी नहीं आया। घिक्कारने लायक है। राष्ट्रीय स्तर के कानून बनाने के लिए संसद, संविधान एवं राष्ट्रीय एकता परिषद के होते हुए किसी नागरिक परिषद की आवश्यकता ही क्या है? क्यों बना रखी है सफेद हाथी जैसी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद?
बिल कहता है कि जब साम्प्रदायिक दंगे हों तो इसका दोष केवल बहुसंख्यकों के माथे ही मढ़ा जाए। अल्पसंख्यकों को मुक्त ही रखा जाए। तब अल्पसंख्यक अपराघियों के मन में भय कहां रहेगा? वे कभी भी बहुसंख्यकों के विरूद्ध कुछ भी उत्पात खड़ा कर सकते हैं। तब कश्मीर के अल्पसंख्यक कभी भी सेना के जवानों के विरूद्ध कोई भी शिकायत कर सकते हैं। जांच में उनको तो दोषी माना ही नहीं जाएगा। आज जिस आम्र्ड फोर्सेज स्पेशल प्रोटेक्शन एक्ट ने सेना को कश्मीर और उत्तर पूर्व में सुरक्षित रखा हुआ है, वह भी बेअसर हो जाएगा। बांग्लादेशी भी अल्पसंख्यकों के साथ जुड़े ही हैं।
दोनों मिलकर आबादी का 20 प्रतिशत हिस्सा हैं।  क्या अपराध भाव किसी के ललाट पर लिखा होता है? क्या अफगानिस्तान, पाकिस्तान जैसे देशों में यही अल्पसंख्यक आतंकवाद के सूत्रधार नहीं है और यहां किसी तरह की साम्प्रदायिक हिंसा में लिप्त नहीं होने की कसम खाकर पैदा होते हैं। आपराघिक प्रवृत्ति व्यक्तिगत होती है। इसे किसी समूह पर लागू नहीं किया जा सकता जैसा कि यह प्रस्तावित बिल कह रहा है। इसी प्रकार नेकी या उदारता भी सामूहिक रूप से लागू नहीं की जा सकती।
एक अन्य घोष्ाणा भी आश्चर्यजनक है। दंगों की अथवा अल्पसंख्यक की शिकायत पर होने वाली जांच में जो बयान अल्पसंख्यक देता है, उस बयान के आधार पर अल्पसंख्यक के विरूद्ध किसी प्रकार की कानूनी कार्रवाई नहीं होगी या कार्रवाई का आधार नहीं बनेगा। याद है न, जब दहेज विरोधी कानून बना था, तब किस प्रकार लड़के वालों की दुर्दशा करते थे पुलिस वाले। झूठी शिकायतों पर? किस प्रकार अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अघिनियम के हवाले से बिना जांच किए सजा देते हैं। अपने ही देशवासी कानून के पर्दे में देश को तोड़ने का निमित्त बन रहे हैं। अब यदि यह बिल पास हो गया, तब वैसे ही जुल्म होंगे, जैसे कुछ अफ्रीकी देशों में होते हैं। सबकी आंखें और कान बंद होंगे।
एक मुद्दा और भी है जिसका अवलोकन भी यहां कर लेना चाहिए। वह है आरक्षण कानून। इसमें अंकित सभी जातियां किस श्रेणी में आएंगी? हिन्दुत्व कोई धर्म या सम्प्रदाय नहीं है। क्या इन सभी जातियों को भी अल्प संख्यक माना जाएगा। क्या सिख, ईसाई, मुस्लिम आदि सम्प्रदायों के बीच आपसी हिंसा होने पर साम्प्रदायिक हिंसा के आरोप से सभी मुक्त रहेंगे? तब क्या यह सच नहीं है कि इस कानून का उपयोग येन-केन प्रकारेण बहुसंख्यकों को आतंकित करने के लिए किया जायेगा।
इसकी अन्य कोई भूमिका दिखाई ही नहीं देती। आज जो कानून हमारे संविधान में हैं, वे हर परिस्थिति से निपटने के लिए सक्षम हैं। जरूरत है उन्हें ईमानदारी और बिना भेदभाव लागू करने की। जो साठ साल में तो संभव नहीं हो पाया। राष्ट्रीय एकता परिषद भी यही कार्य देखती है। सजा का अघिकार नई समिति को भी नहीं होगा। निश्चित ही है कि इसका राजनीतिक दुरूपयोग ही होगा। इसके पास स्वतंत्र पुलिस भी होगी। मध्यप्रदेश में लोकायुक्त पुलिस जो कर रही है, उसे कौन नहीं जानता। सरकारें, राजनेताओं तथा अपने चहेतों को मंत्र देकर बिठाती जाएंगी।
मजे की बात यह है कि अल्पसंख्यक समूह की व्याख्या में एसटी/एससी को भी शामिल किया गया है। अर्थात उन्हें बहुसंख्यकों के समूह से बाहर निकाल दिया। तब अन्य आरक्षित वर्गो को कैसे साथ रखा जा सकेगा? यदि उनको भी अल्पसंख्यक मान लिया जाए तो, बहुसंख्यक कोई बचेगा ही नहीं। ब्राह्मण एवं राजपूत भी आंदोलन करते रहते हैं आरक्षण के लिए। उनको भी दे दो। तब आज के अल्पसंख्यक ही कल बहुसंख्यक भी हो जाएंगे।
क्या होगा, क्या नहीं होगा यह अलग बात है। प्रश्न यह है कि मोहल्ले के कोई दो घर मिलकर नहीं रह पाएंगे। बल्कि दुश्मन की तरह एक-दूसरे को तबाह करने के सपने देखने लग जाएंगे। अल्पसंख्यक पड़ोसियों को पूरी छूट होगी कि देश में आएं, कानून से मुक्त रहकर अपराध करें और समय के साथ देश को हथिया लें। धन्य-धन्य मेरा लोकतंत्र एवं उसके प्रहरी!!!

जनोक्ति.कॉम 

देश के विखण्डन का जहर घोलती, राष्ट्रीय सलाहकार परिषद

इसे जरा गौर से पढ़ें ‘‘हम भारत के लोग, भारत को एक (संपूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न समाजवादी, पथिनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य) बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई (मिति मार्गशीर्ष शुल्क सत्पमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं ।’’ किस तरह भारत के कुछ लोग भारत के संविधान की मूल आत्मा को न केवल छिन्न-भिन्न करने पर उतारू है, बल्कि सुनियोजित ढंग से इसकी हत्या करने में जुटे हैं । जब स्वतंत्र भारत में भेदरहित सब एक है तो ऐसे में भेदपूर्ण प्रस्तावित ‘‘साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा विधेयक 2011’’ क्यों ? क्या यह भारत को कमजोर, तोड़ने एवं पुनः गुलाम बनाने की कोई सोची समझी चाल तो नहीं ? उत्तर हाँ, ही में आयेगा क्योंकि जिस हिसाब से शब्दों की जादूगरी के साथ इसे रचा गया है वह निश्चित ही भविष्य में भारत को पटकनी एवं गृहयुद्ध छिड़ने की पूरी संभावनाओं को जन्म देता है । जब पूर्व में ही हमारे संविधान निर्माताओं ने देश के प्रत्येक नागरिक की सुरक्षा के लिए पर्याप्त कानून बनाए हैं तब ऐसे में एक नया विधेयक जिसका प्रत्येक शब्द जहर में डूबा हुआ है आखिर ये क्यों ? यूं तो वर्तमान में भारत के संविधान में साम्प्रदायिक हिंसा की रोकथाम के लिए कड़े एवं पर्याप्त कानून मौजूद हैं और भारत में शांति भी कायम है। इसका ताजा उदाहरण पिछले वर्ष राम मंदिर-बाबरी मस्जिद का ऐतिहासिक निर्णय के समय पूरे भारत में पूर्ण शांति छाई रही अपराधी तत्वों को कड़े कानून के चलते उनके मंसूबों पर पानी फिरा । यह सब कुछ निर्भर करता है कि सरकार क्या चाहती है ? लेकिन ऐसा लगता है कुछ लोगों को शायद यह सब कुछ रास नहीं आ रहा है। इस देश में चाटुकारों, शिखण्डी एवं भांडों की भी कोई कमी नहीं है । ऐसेे लोग अपने आकाओं की नजरों में चढ़ने के लिए अपनी ऊल-जलूल हरकतों से भी बाज नहीं आते फिर चाहे देश की एकता अखण्डता को ही क्यों न दांव पर लगाने पड़े कुछ ऐसा ही शर्मनाक कृत्य राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा हाल में प्रस्तावित विधेयक ‘‘साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा विधेयक 2011’’ है । यहाँ कुछ यक्ष प्रश्न उठते हैं
पहला विधेयक बनाने का कार्य भारत की संसद को है या राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को ?
दूसरा क्या इससे संसद के मूल अधिकारों एवं कर्तव्यों का हनन नहीं होता ?
तीसरा क्या परिषद को इस विधेयक को बनाने की वैधानिक मान्यता प्राप्त है ?
चौथा यदि उत्तर हाँ में है तो ऐसा अधिकार अन्ना हजारे या बाबा रामदेव के संगठन को क्यों नहीं ?
पाँचवा इस विधेयक से यदि देश की एकता-अखण्डता, अराजकता, साम्प्रदायिक सद्भाव, धर्मनिरपेक्षता को आघात पहुंचता है जो निश्चित तौर पहुंचेगा ही, भविष्य में जो घटना घटित हो ऐसे षड़यंत्रकारियों के खिलाफ क्या केन्द्र शासन जवाबदेही निर्धारित कर कार्यवाही करेगा? क्या ऐसे लोगों पर केन्द्र सरकार देशद्रोह का मुकदमा चलायेगी ? यहां मैं इस विधेयक की जहरीली मंशा एवं राज्यों के बारे में चली कुत्सित चाल के बारे में मोटे तौर पर सभी सच्चे भारतीयों को न केवल बताना चाहूंगी बल्कि ये जनता के बीच राष्ट्रीय बहस के भी मुद्दे होना चाहिए ताकि, साजिशकार, विदेशी एवं आतंकी विचारधारा वाले लोग बेपर्दा हो सकें । पहला ‘समूह शब्द’ यहां इसका अर्थ अल्पसंख्यक (मुसलमान, बौद्ध, जैन सिख आदि-आदि) अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए हैं बहुसंख्य हिन्दु इसमें नहीं आते, इसे यूं समझें हिन्दू को अल्पसंख्यक मारे तो कोई दण्ड नहीं, यदि हिन्दू इनको मारे तो दण्ड ? ये कैसा न्याय? मरने वाला सिर्फ और सिर्फ आदमी होता है फिर इससे कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि वो किस जाति या धर्म का है । ऐसा करने की इजाजत तो हमारा संविधान भी नहीं देता । दूसरा बहुसंख्यक हिन्दुओं को माना गया है यहां मूल प्रश्न उठता है कि आखिर हिन्दु कौन ? ये हम सभी जानते हैं कि हिन्दु न जाति है न धर्म सिन्धु नदी के किनारे बसने वाले सभी हिन्दू कहलाए। हमें धर्म, जाति समुदाय में स्पष्ट भेद करना ही होगा, नहीं तो भविष्य में बड़ा उत्पात मच सकता है । क्या जैन, सिख, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोग हिन्दू नहीं ? तीसरा विधेयक का मसौदा तैयार करने में अधिकांशतः विशेष वर्ग या विशेष विचारधारा वाले ही हैं, आखिर क्यों ? जब इसे पूरे भारत पर ही लादने की बात कर रहे हैं तो सभी जाति, धर्म समुदाय के लोग क्यों नहीं ? चौथा अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय नागरिकों को बोलने एवं लिखने की स्वतंत्रता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा जो संविधान के अनुच्छेद 19 का घोर उल्लंघन होगा । पांचवां वर्गों में भेद संविधान की मूल भावना के वपरीत है ।
छठवां इस विधेायक में पीड़ित व्यक्ति भी केवल अल्पसंख्यक ही हो सकता है बहुसंख्यक नहीं ? वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह सबसे खतरनाक है । इसे यू समझंे कोई विशेष जाति समूह का व्यक्ति या समूह बहुसंख्यक के साथ दंगा या बलात्कार करता है तो जायज एवं सुरक्षित है । लेकिन बहुसंख्यक समुदाय का व्यक्ति या समूह अल्पसंख्यक जिसमें मुस्लिम भी सम्मिलित हैं के साथ यही कृत्य करता है तोे करने मात्र से ही दण्डनीय अपराध की श्रेणी में आ जायेगा । इससे आतंकी विचारधारा के विशेष समूहों को केवल सुरक्षा मिलेगी बल्कि खुले में नंगा नाच, हत्या, दंगा, मारकाट भी मात्र अल्पसंख्यक होने से जायज हो जायगी या यूं कहे इन्हें दोषी नहीं माना जायेगा क्या यह जायज है ? विधेायक की ड्राफ्टिंग में लगे लोग आखिर संविधान को शीर्षासन कराने में क्यों तुले हैं? संविधान का अपमान क्यों करना चाहते हैं ?
सातवां इस विधेयक से सिर्फ और सिर्फ वोट की राजनीति की ही बू आती है । यदि किसी राजनैतिक पार्टी को अल्पसंख्यकों की इतनी ही चिंता है तो क्यों नहीं एक नया अल्पसंख्यक राष्ट्र या प्रदेश घोषित कर देते ? आखिर देशवासियों को पता तो चले कौन है नया जिन्ना ?
आठवां कई राज्यों में हिन्दु अल्पसंख्यक हैं उसका क्या होगा ये प्रस्तावित विधेयक में कहीं उल्लेख नहीं है ।
नवां राष्ट्रीय एकता परिषद को इतना जबरदस्त अधिकार सम्पन्न बनाया गया है जिससे केन्द्र एवं राज्यों के सम्बन्धों में निश्चित दरार आयेगी ।
दसवां इस विधेयक में पूरा का पूरा जोर कर्मचारियों पर ही केन्द्रित है । नेताओं को इससे मुक्त रखा गया है क्यों ? जबकि दंगे भड़काने, शहर, प्रदेश बंद कराने में इन्हीं की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है फिर भी जवाबदेही से मुक्त क्यों ?
ग्यारहवां राष्ट्रीय एकता परिषद जो फूट डालो का कार्य कर रही है, देश में शांति बनाए रखने के लिए, देशहित में तत्काल प्रभाव से इसे भंग कर देना चाहिए । भारतीय जनता एवं बुद्धिजीवी भी इस दिशा में चिन्तन करे ।

डॉ. शशि तिवारी

 जनोक्ति.कॉम 


Saturday, 4 June 2011

क्या हत्यारे ,दंगाई और हिंसक प्रवृति के हैं हिन्दू ?


shreshthbharat
क्या हत्यारे ,दंगाई और हिंसक प्रवृति के हैं हिन्दू ? 

सोनिया गाँधी के अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने सांप्रदायिक हिंसा विधेयक का टाडा से भी खतरनाक कानून का मसौदा तैयार कर लिया है . जिसका नाम सांप्रदायिक एवं लक्ष्य केंद्रित हिंसा निवारण (न्याय प्राप्ति एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक 2011 है 

जिसने निम्न बिंदु है :

१- बहुसंख्यक [हिंदू ]हत्यारे ,हिंसक और दंगाई प्रवृति के होते है .. 

२- दंगो और सांप्रदायिक हिंसा के दौरान यौन अपराधों को तभी दंडनीय मानने की बात कही गई है अगर वह अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्तियों के साथ हो .यानि अगर किसी हिंदू महिला के साथ दंगे के दौरान कोई मुस्लमान बलात्कार करता है तो ये दंडनीय नहीं होगा ..

[ सोनिया जी क्या आप हर हिंदू महिला को अपनी बेटी प्रियंका गाँधी की तरह SPG सुरक्षादेंगी ?]

३- यदि दंगे में कोई अल्पसंख्यक [मुस्लमान ] घृणा व वैमनस्य फैलता है तो वे कोई अपराध नहीं माना जायेगा , किन्तु अगर कोई बहुसंख्यक [हिंदू ] घृणा व वैमनस्य फैलता है तो उसे कठोर सजा दी जायेगी ..

4- इस बिल में केवल अल्पसंख्यक समूहों की रक्षा की ही बात की गई है सांप्रदायिक हिंसा के मामले में यह बिल बहुसंख्यकों की सुरक्षा के प्रति मौन है। इसका अर्थ साफ है कि बिल का मसौदा बनाने वाली एनएसी की टीम भी यह मानती है कि दंगों और सांप्रदायिक हिंसा में सुरक्षा की जरुरत केवल अल्पसंख्यक समूहों को ही है। 

[ मतलब साफ है की कांग्रेस पार्टी को हिंदू वोट की कोई जरुरत नहीं है ]

5- इस काले कानून के तहत सिर्फ और सिर्फ हिन्दुओ के ही खिलाफ मुकदमा चलाया जा सकता है .. कोई भी अप्ल्संख्यक [मुस्लमान और ईसाई ] किस काले कानून के दायरे से बाहर होंगे ..

6- दंगो की समस्त जबाबदारी हिन्दुओ की ही होगी क्योंकि हिन्दुओ की प्रवृति हमेशा से दंगे भडकाने की होती है .. और हिंदू आक्रामक प्रवृति के होते है ..

7- अगर किसी भी राज्य में दंगा भडकता है और मुसलमानों को कोई नुकसान होता है तो केंद्र सरकार उस राज्य के सरकार को तुरंत बर्खास्त कर सकती है ..

[सोनिया के आँख में गुजरात की मोदी सरकार और कर्णाटक की यदुरप्पा सरकार जिस तरह से चुभ रही है उसे देखते हुए यही लगता है की अब बीजेपी की सरकारों को बर्खास्त करने के लिए सोनिया को किसी पालतू राज्यपाल की जरुरत नहीं पड़ेगी .. बस भाड़े के गुंडों से दंगो करवाओ और बीजेपी सरकारों को बर्खास्त करो ..]

8- दंगो के दौरान होने वाले किसी भी तरह के जान और माल के नुकसान पर मुवावजे के हक़दार सिर्फ अल्पसंख्यक ही होंगे .. कोई भी हिंदू दंगे में होने वाले किसी भी तरह के नुकसान पर मुवावजा का हक़दार नहीं होगा ..

मित्रों यह विधेयक बन कर तैयार है .. अब तक सिर्फ बीजेपी ने ही इसका बिरोध किया है .. बाकि सभी पार्टिया खामोश है , क्योंकि सबको सिर्फ मुस्लिम वोट बैंक की ही चिंता है .

मित्रों ऐसा काला कानून औरंगजेब और अंग्रेजो के भी ज़माने में नहीं था . और तो और सउदी अरब जैसे देश जहा पर शरिया कानून है उस देश में भी कानून की परिभाषा में सिर्फ “अभियुक्त “ और वादी और प्रतिवादी ही होते है वहा का कानून भी मुसलमानों को कोई विशेषाधिकार नहीं देता ..


क्या हिन्दुओ अब भी तुम किसी चमत्कार की उम्मीद करोगे या शिवाजी की की राह पर चलने को तैयार होगे ?

source : 
https://www.facebook.com/shreshthbharat 

Friday, 3 June 2011

pls oppose the NAC proposed Communal violence bill by mailing all Indians


Dear Friends

Namaskar

The NAC has proposed a draconian law: COMMUNAL VIOLENCE BILL which is proactively proposed to be blatantly anti majority community in India.

We have put the brief pointers of this proposed law on a blog http://no2communalviolencebill.blogspot.com/  where we have also given the website details of the NAC .

We oppose this proposed act and we request All Indians of all religions to share their opposition by mailing the NAC on wgcvb@nac.nic.in  till 10th june 2011

Please mark a copy to us at no2communalviolencebill@gmail.com so that we can maintain records of comments to this bill and release a compilation to the major political parties and Media.


We further request you to pl fw this mail to all citizens of India, who may hence become aware of such a monsterity.

Kindly become  FOLLOWER TO THIS BLOG AND JOIN THE GROUP ON FACEBOOK  http://www.facebook.com/home.php?sk=group_220133954672022

Twitter http://twitter.com/no2cvbill

Jai Hind

Who will ensure implementation of this act?


The bill provides for a seven-members of whom  at least four of them including the chairman and vice-chairman shall only belong to a 'group' (the minority community).

A similar body is intended to be created in the states. Membership of this body thus shall be on religious and caste grounds. The offenders under this law are only the members of the majority community.

The draconian and anti-federal character of the “National Authority” becomes
clear on Page 16 under the “Powers of the National Authority”. Specific anti federal powers include:
– Binding directives to agencies of the State
– Judicial Powers of a Civil Court in running inquiries and investigations
– Power to search any building
- Power to refer cases for trial to the Judiciary under the Criminal code
– Treating proceedings conducted by it as Judicial Proceedings
– Wide investigative powers through any existing agency
– Role on inquiring into the conduct of Armed Forces.



What are the procedures to be followed
The procedures to be followed for investigations under this act are extraordinary. No
statement shall be recorded under section 161 of the CrPC. Victim statements shall be only under section 164 (before courts).

 The government will have a power to intercept and block messages and telecommunications under this law.

Under clause 74 of the bill if an offence of hate propaganda is alleged against a person, a presumption of guilt shall exist unless the offender proves to the contrary. An allegation thus is equivalent to proof.

Public servants under this bill under clause 67 are liable to be proceeded against
without any sanction from the state.

The special public prosecutor to conduct proceedings under this act shall not act in aid of truth but 'in the interest of the victim'. The name and identity of the victim complainant will not be disclosed. Progress of the case will be reported by the police to the victim complainant.


This law, if happens is bound to be misused. Perhaps, that
appears to be the real purpose behind its drafting. It will encourage minority
communalism. 

NAC’s Draft Communal Violence Bill – An Analysis(In Hindi and English)


The website is http://nac.nic.in/communal/com_bill.htm and the email id given on this website for posting view till 10th June is wgcvb@nac.nic.in

We request you to read the proposed act on the website and oppose the proposal as we feel it is  against the Majority community and can create danger for the Nation.

Please send us a copy of ur mail to the NAC on no2communalviolencebill@gmail.com , so that we may record the opposition to this act and send copies to all major political parties and press if needed.


The basic premise behind this new bill is deeply flawed and anti-federal.

This draft bill however proceeds on a presumption that communal trouble is created only by members of the majority community and never by a member of the minority community. Thus, offences committed by members of the majority community against members of the minority community are punishable. Identical offences committed by minority groups against the majority are not deemed to be offences at all.

Page 50: Another insight into the communally prejudiced mindset with which this bill was written becomes evident within the section on “Guarantee of non-repetition” “The search for the bodies of those killed or disappeared and assistance in the identification and reburial of the bodies in accordance with the cultural practices of the families and communities.”
This means, NAC  have made the assumption that perpetrators will always be Hindus and the victims will always be Muslims or Christians!


Offences which are defined under the bill have been deliberately left vague. Communal and targeted violence means violence which destroys the 'secular fabric of the nation'.

There can be legitimate political differences as to what constitutes secularism. The
phrase secularism can be construed differently by different persons. Which definition is the judge supposed to follow?

Page 10 : The Bill’s anti-federal character becomes clear on when it seeks to
confer on the Central Government the power to intervene. Democratically elected governments will be required by law to explain within 7 days why the National Authority directives were not complied with - The setting up of a parallel structure within the states called the “State Authority” If the proposed bill becomes a law- central government  will snatch the jurisdiction of the states and legislated on a subject squarely within the domain of the states.

  
Page 33: absurd provision- demand for proportional representation of religious and linguistic minorities in Special Public Prosecutor Panels.


It is also ironic that the NAC have adopted definitions from the much maligned Maharashtra Organized Crime Act (MCOCA) and TADA despite having opposed similar legislations pending from other non- Congress states.

  
Thus a sexual assault is punishable under this bill and only if committed against a person belonging to a minority 'group'. A member of a majority community in a state does not fall within the purview of a 'group'.

 A 'hate propaganda' is an offence against minority community and not otherwise. Organised and targeted violence, hate propaganda, financial help to such persons who commit an offence, torture or dereliction of duty by public servants are all offences only if committed against a member of the minority community and not otherwise.

No member of the majority community can ever be a victim!

This draft law thus proceeds on an assumption which re-defines the offences in a highly discriminatory manner. No member of the minority community are to be punished under this act for having committed the offence against the majority community.

If implemented in a manner as provided by this bill, it opens up a huge scope for abuse.It can incentivise members of some communities to commit such offences encouraged by the fact that they would never be charged under the act.

Terrorist groups may no longer indulge in terrorist violence. They will be incentivised to create communal riots due to a statutory assumption that members of a jihadi group will not be punished under this law. The law makes only members of the majority community culpable.

Why should the law discriminate on the basis of a religion or caste?
An offence is an offence irrespective of origin of the offender. Here is a proposed law
being legislated in the 21st century where caste and religion of an offender wipe out the culpability under this law.


The most disturbing aspect of the Bill is under“Defenders for Justice and Reparations” where in the state authority can appoint any random individual and empower him or her with an interventionist role.

 In conclusion it must be noted that this Bill stands out for the contempt and disregard with which it holds the Parliament of India by offering NO ROLE to Parliament in the removal of members appointed to the proposed “National Authority”.

The word Parliament occurs exactly 4 times in the entire draft bill. There is no mention in the entire draft bill on how exactly the proposed “National Authority” will be accountable to Parliament for its interventionist conduct beyond the token act of placing its annual report during the monsoon session.


Bottomline : This bill has been written with just one Act of Communal
Violence in mind – Gujarat 2002. It makes a mockery of the Sikh
Victims of the Rajiv Gandhi lead Congress sponsored 1984 riots in Delhi by assuming that all Victims by default are Christian or Muslim. This bill is Anti-Federal and goes against the spirit and grain of the Constitution. It must be junked in toto.

This is not the first time this has been attempted. An effort in the past to pin
down Narendra Modi by invoking a non-existent Command Doctrine failed when it was pointed out that there was no Indian Law on the same. The Communal Violence Bill by trying to invoke the Doctrine of Command Responsibility essentially makes India party to provisions of the Rome Statute despite not being a signatory to it.

The drafting of this bill appears to be a handiwork of those social entrepreneurs who
have learnt from the Gujarat experience of how to fix senior leaders even when they are not liable for an offence.


हिंदी में पढ़िए: 

इस विधेयक मसोदे  में यह कहा गया है की  सांप्रदायिक दंगे सिर्फ बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों द्वारा ही किया जाता है, ना की अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों द्वारा| बहुसंख्यक समुदाय द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय पर किए गए कुकर्म की सजा दी जाएगी, परन्तु वाही  कुकर्म अगर अल्पसंख्यक समुदाय करता है और उसकी सिनाख्त भी कर ली जाती है तो भी वह सजा का पात्र नही होगा|

पेज: 50 पुर्नावृति की गारंटी के बारे में लिखे एक अनुभाग से यह सपष्ट हो जाता है की इस बिल को सांप्रदायिक पूर्वाग्रह मनसिकता से ग्रस्त हैं| सांप्रदायिक दंगो में मारे गए या गायब हो गए लोगों के परिवारों द्वारा पहचान के बाद मृत शरीर को सांस्कृतिक प्रथाओं के अनुसार दफ़न करने में मदद करेगी| 


" इसका अर्थ यह है की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् मान चुकी है की दोषी हमेसा हिन्दू होंगे और पीड़ित हमेसा मुसलमान और क्रिस्चन|" इस विधेयक के तहत परिभाषित अपराध को जान-बुझ कर अस्पष्ट छोड़ दिया गया है| सांप्रदायिक हिंसा और लक्षित हिंसा धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अखंडता और एकता को तोड़ देता है| क्या वैध राजनितिक मतभेदों के रूप में धर्मनिरपेक्षता का गठन किया जा सकता है|



 धर्मनिरपेक्षता का अर्थ व्यक्ति दर व्यक्ति अलग होता है, परन्तु यह अपने ऊपर है की धर्मनिरपेक्षता के कौन से परिभाषा का अनुकरण करते हैं| इस विधेयक का विरोधी संघीय चरित्र तब स्पष्ट हो जाता है, जब केंद्र सरकार इस मुद्दे पर अपने अधिकारों का प्रयोग कर हस्तछेप करे| लोकतान्त्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार के लिए आवश्यक हो जायेगा की 7 दिनों के अन्दर कानून का अनुपालन करें और राज्यों के भीतर समान्तर संरचना की स्थापना करें जिसे "स्टेट प्राधिकरण" कहा जाता है| 

अगर यह प्रस्तावित बिल कानून बन जाता है तो केंद्र सर्कार राज्यों का अधिकार क्षेत्र छिनने और राज्यों के भीतर कानून बनाने और राज्यों के कार्यक्षेत्र में शासन करेगी| 


विशेष लोक अभियोजन पैनलों में धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के अनुपातिक प्रतिनिधित्व के लिए बेतुका प्रावधान की मांग की गई है| यह भी विडंबना है की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् ने महाराष्ट्र में संगठित अपराध कानून मकोका और टाडा जैसे अधिनियम को अपनाया है, जो की गैर कांग्रेसी राज्यों में लंबित है| इस प्रकार यौन उत्पीडन इस बिल के तहत दंडनीय अपराध है अगर वह किसी अल्पसंख्यक समूह के व्यक्ति के खिलाफ प्रतिबद्ध है, परन्तु अगर वही कार्य अगर किसी बहुसंख्यक समुदाय के व्यक्ति के साथ होता है, तो वह दंडनीय अपराध नहीं है|


अल्प्संखयक समुदाय के खिलाफ नफरत एक दंडनीय अपराध है अन्यथा नही| संगठित या लक्षित हिंसा या नफरत और कर्तव्य का पालन करते सरकारी कर्मचारी द्वारा लापरवाही और इन सब अपराधों में अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ प्रतिबद्ध नहीं है तो ऐसे व्यक्तियों को वितीय मादा दी जाएगी|


"बहुसंख्यक समुदाय के लोग कभी पीड़ित नही हो सकते|" 
इस कानून के मसौदे इस प्रकार के धरना पर परिभाषित किया है जिसमे अपराध को भेदभावपूर्ण तरीके से दिखलाया गया है| इस कानून के तहत ऐसा भी कहा गया है की यदि अल्पसंख्यक समुदाय बहुसंख्यक समुदाय के खिलाफ कोई अपराध भी करते हैं तो उसे अपराध नही कहते| 


अगर ये कानून इस प्रकार से ही लागु किया गया तो इसका अधिक दुरूपयोग होगा| इस प्रकार के अधिनियम कुछ खास समुदाय के लोगों  को अपराध करने को प्रोत्साहित करेंगे क्योकि उन्हें दंड नही मिल सकता| आतंकवादी संगठनों को अब आतंकवादी हिंसा में लिप्त होने की जरुरत नही पड़ेगी क्योकि इस कानून को पारित होने क्ले बाद वह सिर्फ सांप्रदायिक हिंसा ही करवाएंगे क्योकि उन्हें इस कानून का संरक्षण मिलेगा| क्यों एक धर्म और जाती के अधर पर कानून में भेदभाव होना चाहिए? अपराध-अपराध है इसमें अपराधी की मूल क्या जरुरत है| यह प्रस्तावित कानून 21वी सदी में कानून बनाया जा रहा है जहाँ एक अपराधी से जाती और धर्म पुच कर दोषी करार दिया जायेगा| 


इस विधेयक का सबसे ज्यादा परेशां करने वाला पहलु है की न्याय और मुआवजा राज्य को देना है जिसके लिए वह किसी भी याकछिक व्यक्ति को नियुक्त कर सकते हैं और उसे हस्तछेप करने की सशक्त भूमिका है| 


अंत में इस विधेयक को अवमानना के लिए बाहर खड़ा करना चाहिए और इसे संसद में प्रस्तावित करने के लिए राष्ट्रीय प्राधिकरण द्वारा नियुक्त सदस्यों को हटाने में कोई भूमिका नही देकर भारत की संसद की उपेक्षा नही करनी चाहिए| इस विधेयक को टायर करते समय 4 बार संसद शब्द का प्रयोग हुआ है| इस बिल को संसद में कैसे संचालित किया जायेगा मानसून सत्र में इसका कैसे जिक्र होगा इस पर कोई ध्यान नही दिया गया है| 


इस बिल में सिर्फ एक सांप्रदायिक हिंसा को मनन में रख कर लिखा गया है- वह 2002  के गुजरात दंगे| जो सिख दंगो का मजाक बनता है, जो 1984  में राजीव गाँधी के सरकार के शासन में दिल्ली में हुए साथ ही यह बिल यह भी दर्शाता है की डिफाल्ट रूप से हर वक़्त पीड़ित किर्स्चन और मुस्लिम होते हैं| यह बिल संघीय भावना और संविधान के स्वभाव के खिलाफ जाता है| इस विधेयक को पूर्ण रूप से अस्वीकार कर देना चाहिए|


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